धर्म नियामक, पालक, संचालक , भर्ता।
धर्मध्वज संरक्षक ,
स्वामी तुम सबके कर्ता।
तुम देवत्व नियामक,
हमपे कृपा करो।
अतिपाखण्ड बढ़ा है
ऋषिवर धर्म धरो।
कश्यप, अत्रि , महामुनि,
विश्वामित्र ऋषी।
भरद्वाज , गौतम , वशिष्ठ
जमदग्नि दयालु वशी।
सृष्टि सुरक्षा हेतु
सप्त ऋषि तुमने यज्ञ किए।
जब-जब धर्म घटा है
तुमने मार्ग दिए।
मत्त नहुष, कामातुर
ऋषि पालकी चढ़ा।
अति नीचता बढ़ी
तब तुमने मंत्र पढ़ा।
हो इंद्रत्वपतित
अजगर बन कष्ट सहे।
भक्त शचीपति भजके
प्रभुको राज लहे।
वेन राज अति दुष्ट
प्रजाजन बहु पीड़ित कीन्हे।
मुष्टिक मारि हतो सो
राज प्रभुहिं दीन्हें।
हम सप्तर्षिकुलोद्भव
आरति नित गावैं।
पूर्व पितामह सबके
तुमको हम ध्यावैं।
तुम व्यापक, अविनाशी
धर्मध्वजा धारी।
मन्वन्तर संस्थापक
पीर हरो म्हारी।
जो सप्तर्षि आरती ,
नित मन से गावै।
धर्म-अर्थ-सुख-सम्पति-
शुभ-सन्मति पावै।।
सप्तर्षिकुलम् द्वारा विरचित।