समानता और समन्वय


पिछले सौ वर्षों में समानता के नारे का बड़ा ज़ोर रहा है। ऊंचाई बराबर करने के लिए लाखों गर्दनें उड़ा दी गईं फिर भी समानता अभी भी नाली के कीड़े की तरह कुलबुला ही रही है। कुछ बुद्धिजीवियों की कल्पनाओं और अंबेडकर संहिता की पोथी के अतिरिक्त इसका कहीं अस्तित्व नहीं दिखता।

वस्तुत: पूर्ण समानता कभी भी , कहीं भी संभव नहीं है और कोई भी उसके लिए तैयार नहीं है। भयंकर समानतावादी भी अपने बाप को बेटा या बेटे को बाप कहने का सत्साहस नहीं कर सकता? न ही कोई मुंह का खाना नाक से खा सकता है। और तो और अपनी पाप की कमाई को भिखारियों में बांटकर भिखारी बन जाने का साहस भी इन समतावादियों में नहीं है क्योंकि इस प्रकृति की प्रत्येक इकाई एक दूसरे से भिन्न है ।

यहां तक कि एक ही नारा की दो बूंदें भी स्थान और काल के भेद से भिन्न ही सिद्ध होती हैं और यही भिन्नता इस प्रकृति की विशिष्टता है । अनंत काल से कोई भी सृष्टि आजतक पुनरावृत्त नहीं हुई है , यही महाप्रपंचिनी प्रकृति का वैशिष्ट्य है और यही वैशिष्ट्य उसके अद्वितीय सौंदर्य का कारण है जिसके पार लाखों वर्षों में एक बार जीवन-मुक्त महायोगी ही जा पाता है।

 

इसीलिए इस काल्पनिक समानता को स्थापित करने के प्रयास का परिणाम प्रकृतिद्रोह होने से सदैव दु:खदायी ही रहा है और रहैगा।

व्यावहारिक और वास्तविक अवधारणा है समन्वय की जिसमें नकारात्मक और सकारात्मक ऊर्जा के द्विविध रूपों को मिलाकर शक्तिशालिनी विद्युत् का निर्माण कर लिया जाता है। जिसमें दुग्ध और शर्करा का मिश्रण कर सुपेय बना लिया जाता है। जिसमें लेखनी और पुस्तिका का समन्वय कर विशाल वाड़मय रच लिया जाता है। और तो और स्त्री और पुरुष का समन्वय कर कल्पान्त तक की सृष्टि रच दी जाती है।

 

यही समन्वय प्राकृतिक विविधता का हल है और प्रकृति का निर्देश है। जो परिवार,जातिसमूह, समाज, देश, राष्ट्र और विश्व इसे साकार करने का प्रयास भी करता है वह चिरस्थायी हो जाता है। इसी समन्वय की शक्ति पर सृष्टि का आधान अवलंबित है।

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