संस्कारशाला का विचार कोई हमारा आविष्कार नहीं है , यह हमारे पूर्वजों द्वारा सुस्थापित प्राथमिक शिक्षा व्यवस्था का ही नवीन रूप है।
पहले प्रत्येक ग्राम में ग्राम पंडित, मंदिरों के पुजारी, कुलवृद्ध और वृद्धाएं मिलकर इन संस्कारशालाओं का परिचालन करते थे।
फिर धीरे-धीरे मंदिर व्यावसायिक होते गए और विद्वान् पुजारियों का स्थान मंदिर समितियों की जी हुजूरी करनेवाले अशिक्षित ब्राह्मणों ने ले ली। फिर ब्राह्मण शब्द भी बोझ लगने लगा और अशिक्षित बचा रह गया। अब ऐसी स्थिति में जब ये पुजारी ही संस्कारविहीन हो गये तो उनसे संस्कारशिक्षा देने की अपेक्षा अनुचित है।
वर्ण व्यवस्था के भ्रष्ट होते ग्रामपंडितों को आजीविका के लाले पड़ने लगे और गांव के गांव ग्रामपंडितों से शून्य हो गये। नगरों में जो पंडित बचे भी , वे पुरोहित और कर्मकांड के व्यावसायिक रूप में चले गए। आखिर सब व्यवसाय बन रहा है, बच्चे पालना भी व्यवसाय है तो कर्मकांड क्यों व्यवसाय न होगा? इन लोभी और असहाय पुरोहितों से संस्कारशिक्षण की बात करना असंभव नहीं तो कठिन अवश्य है।
आश्रम व्यवस्था टूटने के बाद सक्रिय वृद्ध मृत्यु पर्यंत धन कमाने की मशीन बनकर रह गये या यों कहें कि उनका बुढ़ापा ही खो गया। सरकारी पेंशन पर जीने वाले अधिकांश वृद्ध राजधान्य के दुष्परिणामों का शिकार हो चले।
रही सही कसर संयुक्त परिवार टूटने ने कर दी। अब घर भी संस्कारविहीन हो चले। जो कुछ एक बुजुर्ग बचे भी, उनमें से अनेक आजीवन अपकर्मों में लिप्त होने के चलते संस्कारशिक्षण के लिए अनुपयुक्त हैं।
ऐसी दशा में विकल्प यही बचता है कि प्रत्येक मोहल्ले और ग्राम में संस्कारशालाओं की संस्थापना की जाए और जहां आवश्यक सांस्कृतिक, धार्मिक और नैतिक ज्ञान बच्चों में भरा जाए ताकि वे बालक अपने माता-पिता का आदर करें न कि संपत्ति के लिए उनकी मृत्यु की कामना और जीवित ही उनका जीवन नरक बना दें। साथ ही अनैतिक विद्यालयीय शिक्षा के दोषों के कारण जो अनाचार, पापाचार, भ्रष्टाचार और कदाचार समाज में फैल रहा है , उसपर अंकुश लगे। बालक-बालिका मानसिक और शारीरिक रूप से स्वस्थ होकर अपनी सुरक्षा कर सकें और उन्नति को प्राप्त करें ।नकि कम अंक आने पर फंदे से लटक जाएं या नौकरी न मिलने पर रेल लाइन पर कूद जाएं।
जब तक इस संपूर्ण शिक्षा व्यवस्था को पूर्णतः प्रतिस्थापित नहीं किया जाता तब तक समाज को जीवित और सुसंस्कृत बनाने के लिए इन संस्कारशालाओं की महती आवश्यकता है और बाद में भी प्राथमिक शिक्षा के लिए इनकी आवश्यकता बनी रहेगी।
इस आवश्यकता को समझते हुए अनेक महापुरुषों और संस्थाओं ने भिन्न-भिन्न प्रकार से और भिन्न-भिन्न नामों से संस्कारशिक्षण का प्रारंभ किया। बाबाओं ने इसे सत्संग का नाम दिया । आर्यसमाज, गायत्री परिवार और आर एस एस की छात्रभारती ने भी संस्कारशालाएं चलाने का प्रयास किया पर इनका प्रभाव सीमित ही रहा और आज ये बंद हो चुकी हैं या बंद होने की कगार पर हैं।
और इसका कारण है कि ये सब संस्कार विकर्षण के नाम पर अपने व्यक्तिगत और संस्थागत स्वार्थों की पूर्ति का प्रयास करते रहे हैं। ये कार्यक्रम जिन छोटी उपसंस्थाओं द्वारा चलाए जा रहे हैं , वे अपनी मातृसंस्थाओं के अधीन हैं और स्वतंत्र निर्णय लेने में असमर्थ हैं जो किसी भी प्रकल्प की सफलता का मुख्य कारक है। दूसरे इनकी मातृ संस्थाओं की दृष्टि समाज निर्माण से बहुत ऊपर है अतः उनके द्वारा इनका सफल संचालन संभव ही नहीं है।
- कुछ संस्थाओं ने बड़े भ्रष्ट तरीके से संस्कारशालाएं चलाईं। जैसे दैनिक जागरण ने संस्कृतविहीन संस्कारशालाएं।
- कुछ लोगों ने इसे अपने व्यक्तिगत प्रचार का साधन बना लिया।
- कुछ लोग ज्ञान के प्रत्येक क्षेत्र के स्वयंभू अधिष्ठाता बन गये बेतरतीब ढंग से सभी को सब कुछ वितरित करने लगे।
- कुछ लोग बाल मनोविज्ञान को समझने में असमर्थ रहे और छात्रों पर एक और बोझ लादने का प्रयास किया।
- कुछ सामाजिक मनोविज्ञान को न समझ सके।
- कुछ ने इसे मात्र धन कमाने का साधन बना लिया।
और कुछ अभी भी जूझ रहे हैं।
सप्तर्षि की संस्कारशालाओं में विचारपूर्वक इन सबका निराकरण करने का प्रयास किया जा रहा है पर किसी कार्य को गुणवत्ता प्रदान करने में श्रम भी लगता है और अर्थ भी।
श्रम का अधिकांश तो सप्तर्षिकुलम् के अध्येता और कार्यकर्ता नि:स्वार्थ भाव से लगा रहे हैं पर अर्थ का व्यय उन्हें भी करना चाहिए जिन्हें इसका लाभ मिलेगा। चूंकि लाभ संपूर्ण समाज और राष्ट्र को मिलेगा इसलिए इसका व्यय भी वही उठाएंगे। जो अभिभावक प्रत्यक्ष लाभ उठाएंगे वे प्रत्यक्ष सहयोग करें और जो नहीं कर सकते उनके लिए दूसरे करें क्योंकि वे भी आपके समाज का हिस्सा हैं।
हम अपने हिस्से का योगदान कर रहे हैं और करेंगे भी पर आप भी अपने योगदान से जी नहीं चुरा सकते।
यदि स्वस्थ समाज और सशक्त राष्ट्र चाहिए तो मन, वाणी, कर्म और अर्थ से सहयोग कीजिए क्योंकि इसका लाभ अंततः आपको ही मिलना है।
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