छिलका उतरते ही ‘चावल’ हो जाता है।
पढ़िए – ध्यान से।
ज्ञानियोगी के विविध नियतमित साधनों के करने से शरीर के अभिमान के नष्ट हो जाने पर अर्थात् जब मनुष्य का अहंभाव (अभिमान) समाप्त हो जाता है, जब पुरुष मैं, मेरा शरीर, मैं कर्ता इस अहंभाव को भूलकर प्रकृतिस्थ हो आत्मस्थ हो जाता है तथा आत्मा परमात्मा को जान लेती है। तब परमात्मतत्त्व को जान लेने पर जहांँ जहांँ मन जाता है वहांँ वहांँ समाधियाँ हैं।
जो पुरुष सर्वत्र जाने वाले अर्थात् सर्वत्र व्याप्त शांत आनंदात्मक और अद्वय अर्थात् दो नहीं, सगुण और निर्गुण नहीं, साकार और निराकार नहीं, कहीं अन्य नहीं, केवल एक ही ब्रह्म को देख लेता है, उसके लिए संसार में कुछ भी प्राप्त करने और जानने के लिए शेष नहीं रह जाता अर्थात् जिसने परमात्मा को प्राप्त कर लिया उसे भला क्या प्राप्त करने के लिए शेष रहेगा तथा क्या उसे जानने के लिए ही रहेगा।
करोड़ों पूजाओं के समान स्तोत्र होता है तथा करोड़ों स्तोत्रों के समान जप होता है, करोड़ों जप के समान ध्यान है और करोड़ों ध्यान के सामान लय है। शरीर ही देवालय (मंदिर) कहा गया है जीव ही महेश्वर है, अतः अज्ञानमाला को त्यागकर अपने को सोsहम् भाव से जोड़ देना चाहिए।
अर्थात् समाधि काल में वह परमात्मा मैं हूंँ यह भाव आ जाना चाहिए। जैसे छिलका रहने पर धान धान रहता है, परंतु छिलके के न रहने पर वह चावल हो जाता है, उसी प्रकार शरीररूपी पाश में बंँधा हुआ जीवात्मा जीव कहा जाता है तथा पाशमुक्त होने पर वह जीव महेश्वर हो जाता है, अर्थात् आत्मा परमात्मा हो जाता है।
श्रीयुत राजेश्वराचार्य:
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