शरणागति


 

भगवान् ने गीता में कहा है-

“सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं ब्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यौ मोक्षयिष्यामि मा शुचः।।”

भगवत्प्राप्ति- भगवत्-शरणागति यह बहुत ऊँची है।

तुम सब धर्मां को त्यागकर, मुझे सर्वात्मा ईश्वर जानकर मेरी शरण में आ जाओ।

मैं तुझे धर्माधर्म रूप बन्धन से छुड़ा दूँगा- आत्मस्वरूप प्रकाश से अज्ञानरूप अन्धकार का नाश कर दूँगा, शोक मत कर।

‘मामेकं शरणं ब्रज’= “मामेकमद्वितीयं शरणमाश्रयं व्रज निश्चिनु, यथा घटाकाशस्याश्रयो महाकाशः तरंगस्याश्रयो महासमुद्रः।”

सभी धर्मो का परित्याग करके मूल एक अद्वितीय अखण्ड परमात्मा की शरण ग्रहण करो।

शरण क्या है?

‘शरणं गृहरक्षित्रौः’ –  शरण का अर्थ है आश्रय और रक्षिता।

‘मामेकं अद्वितीयं परमात्मानं शरणं= आश्रयं, ब्रज=अवगच्छ।

‘ब्रज गतौ’ मुझ एक अनन्त अखण्ड परात्पर परमात्मा को ही अपना आश्रय जानो, जैसे तरंग अपना आश्रय महासमुद्र को जाने, जैसे घटाकाश अपना आश्रय महाकाव्य को जाने, जैसे उत्पल की नीलिमा अपना आश्रय उत्पल को जाने, जैसे कटक, मुकुट, कुण्डल अपना आश्रय अखण्ड सुवर्ण को जानें।

इस प्रकार से ‘मां एकं अद्वितीयं परमात्मानं शरणमाश्रयं व्रज अवगच्छ निश्चिनु’ यही कल्याण का रास्ता है।

‘भगवान ही हमारे आश्रय हैं, तरंग का आश्रय महासमुद्र जैसे है।’ यह निश्चय करना चाहिये।

जीवात्मा के आश्रय-अनन्त ब्रह्माण्ड आधिष्ठान स्वप्रकाश परात्पर परब्रह्म हैं।
अथवा ‘शरणं’ माने ‘रक्षितारं’ है।

‘मां एकं परमात्मानं रक्षितारं निश्चिनु’ = मुझ एक अखण्ड परमात्मा को ही अपना रक्षिता जानो।
भगवान ही रक्षिता हैं।
एक बात है- ‘स एनमविदितो न भुनिक्ति’
वेद कहता है- —
‘देवता का जब तक साक्षात्कार नहीं होता, तब तक देव पालक नहीं होता, रक्षा नहीं करता।’ एतदर्थ देव का साक्षात्कार होना चाहिये।

इसलिये ‘तमेव विदित्वातिमृत्युमेति नान्यः विद्यतेअयनाय

इसलिये भगवत्स्वरूप का साक्षात्कार करना चाहिये और उन्हीं को अपना रक्षिता समझना चाहिये।

भगवान रामचन्द्र राघवेन्द्र ने भी यही कहा कि—–

“सकृदेव प्रपन्नाय तवास्मीति च याचते।
अभयं सर्वभूतेभ्यो ददाम्येतद् व्रतं मम।।”

जो एक बार भी शरण में आकर ‘मैं तुम्हारा हूँ’ ऐसा कहकर मुझसे रक्षा की प्रार्थना करता है,
उसे मैं समस्त प्राणियों से अभय कर देता हूँ। यह मेरा सदा के लिये व्रत है।

सारे दृश्य प्रपंच से विरक्त होकर अर्थात भगवद्भिन्न सारे पदार्थों से विमुख निराश होकर एकमात्र सर्वेश्वर, सर्वशक्तिमान् प्रभु को ही प्राप्त होना ‘प्रपत्ति’ है।

“भवन्तं सर्वभूतानां शरण्यं शरणं गतः।
परित्यकता मया लंका मित्राणि च धनानि च ।।”

हे श्री राम भद्र! आप समस्त प्राणियों को शरण देने वाले हैं, इसलिये मैंने आपकी शरण ली है।

अपने सभी मित्र, धन और लंकापुरी को छोड़कर आया हूँ।

इसलिये सर्वपरित्यागपूर्वक भगबत्प्रपत्ति, भगवत्-शरणागति बड़ी ऊँची बात है।

इससे तत्क्षण कल्याण होता है, देरी की कोई बात ही नहीं।

“जननी जनक बंधु सुत दारा।
तनु धनु भवन सुहृद परिवारा।
सब के ममता ताग बटोरी।
मम पद मनहिं बाँध बरि जोरी।।
समदरसी इच्छा कछु नाहीं।
हरष सोक भय नहिं मन माहीं।।
अस सज्जन मम उर बस कैसें।
लोभी हृदयँ बसइ धनु जैसें।।
तुम्ह सारिखे संत प्रिये मोरे।
धस्उ देह नहि आन निहोरें।।”

ऐसी भगवत्प्रपत्ति बहुत ऊँची है।
अच्छा यह न बन सके तो, ‘तवास्मीति च याचते’ यह याचना करो कि हे प्रभो! हमें स्वीकार कर लीजिये।’

भक्तों ने कहा- ‘महाराज! आपने यह प्रतिज्ञा अकेले में नहीं की है, तीर्थ में की हैं।

किस तीर्थ में?

समुद्र में।

सारे तीर्थ उसी में तो जाते हैं। गंगा भी वहीं जाय, यमुना भी वहीं जाय, तीर्थों का अधिष्ठान है समुद्र। उनके किनारे आपने प्रतिज्ञा की,अकेले नहीं थे आप, ऋषि थे, महर्षि थे, बन्दर भालु थे, इन सबके मध्य आपने प्रतिज्ञा की।
इसलिये मुकर नहीं सकते महाराज! और महाराज श्रीरामचन्द्र मुकरें भी कैसे?

तुलसीदास जी महाराज के राम तो कहते हैं—-

“शरणागत कहुँ जे तजहिं निज अनहित अनुमानि।
ते नर पाँवर पापमय तिन्हहिं विलोकत हानि।।”

‘‘जो शरणागत को त्याग देता है अपना अनहित-अहित समझकर, वह नर पामर है, पापमय है, उसके दर्शन में पाप लगता है।’’

ऐसे प्रभु कभी मुकर सकते हैं?

कभी नहीं।

श्रीरामभद्र ने वाल्मीकि- रामायण में कपोत का दृष्टान्त दिया है—-

कपोत के शरण कोई व्याध आया, शरण माने घर।

अर्थात जिस पेड़ पर कपोत रहता था, उस वृक्ष के नीचे कोई व्याध भी ऐसा था जिसने कपोत की कपोती को अपने जाल में फँसा रक्खा था। शत्रु-सरीखा व्याध उसके शरण आया। जाड़े में वह ठिठुर रहा था। कपोत ने अतिथि का सत्कार करना चाहा, उसके प्राणों को बचाना चाहा। कहीं से जलती हुई लकड़ी ले आया। इधर-उधर से लकड़ियों को बटोर कर उस पर रखा। अग्नि प्रज्वलित कर अतिथि को शीत से बचा लिया। फिर कपोत ने सोचा यह अवश्य ही भूखा है, स्वयं ही अग्नि में कूद पड़ा-‘लो भैया, इस अग्नि में मुझे भून करके भूख मिटालो’ श्रीराम ने यह दृष्टान्त दिया ।

उन्होंने कहा- शरणागत का इतना महत्त्व है। पक्षियों ने भी शरणागत को महत्त्व दिया है।

हम राघव-कुल में उत्पन्न हैं, फिर शरणागत की रक्षा क्यों न करें?

“श्रूयते हि कपोतेन शत्रुः शरणमागतः।
अचितश्च यथान्यायं स्वैश्च मांसैनिमन्त्रितः।।
स हि तं प्रतिजग्राह भार्याहर्तारमागतम्।
कपोतो वानर श्रेष्ठ! किं पुनर्मद्विधो जनः।।”

भगवान रामचन्द्र ने सुग्रीव से कहा- यदि रावण ही आया हो तो भी लौटकर पूछने की जरूरत नहीं है, ले आना।

विभीषण हो अथवा रावण- जो भी आया हो, ले आओ। सदोष हो तो भी भूषण है।
सदोष शरणागत को ग्रहण करना यह तो भूषण है।

“आनयैनं हरिश्रेष्ठ दत्तमस्याभयं मया।
विभीषणो वा सुग्रीव यदि वा रावणः स्वयम्।।”

शरणागति एक बहुत ऊँची चीज है, परन्तु उसमें एक खतरा है।

यह ब्रह्मास्त्र है, ब्रह्मास्त्र जिसके ऊपर प्रयुक्त हो गया, उसके ऊपर यदि दूसरा बन्धन डाल देंगे तो वह विफल हो जायगा।

मेघनाद ने हनुमान जी पर ब्रह्मास्त्र डाला, ब्रह्मास्त्र का सम्मान करते हुए हनुमान जी उससे निबद्ध हो गये।

मेघनाद जरा आराम करने लगा। युद्ध करते-करते थक गया था। इधर राक्षसों ने सोचा यह बन्धन तो बड़ा कमज़ोर है। बड़ी-बड़ी श्रृखलाओं को लाकर हनुमान को बाँध दिया। मेघनाद की आँखें खुलीं।

उसने देखा- हनुमान को इन राक्षसों ने लोहमयी श्रृखंलाओं से बाँध रखा है।
उसने सोचा- इन दुष्टों ने बड़ा काम खराब किया। ब्रह्मास्त्र तो दूसरा बन्धन सहन करता ही नहीं।

ब्रह्मास्त्र का प्रभाव तो जाता रहा है। इस हनुमान के लिये श्रृखलायें भला क्या चीज है’। इसी तरह भगवत-शरणागति दूसरी शरणागति को सहन नहीं करती।

“मोर दास कहाइ नर आसा।
करइ तौ कहहु कहा विश्वासा।।”

वेदान्तदेशिकाचार्य जी कहते हैं—–

“दुरीश्वरद्वारबहिवितदिकादुरासिकायै रचितोअयमंजलिः।
यदंजनाभं निरपायमस्ति मे धनंजयस्यन्नदनभूषणं धनम्।”

अर्थात् दुरीश्वरों के द्वार की बहिर्वितर्दिका पर दुराशा को लेकर जो बैठना है, उसके लिये मैंने हाथ जोड़ दिया, क्योंकि हमारे पास तो धनंजय के रथ का अति सुन्दर अंजनाथ श्रीकृष्ण ही अनपाय-धन हैं।

फिर हमें और की क्या आवश्यकता है?

किसी ने चातक से कहा है—–

“रे रे चातक सावधानमनसा मित्र क्षणं श्रूतया
मम्भोदा बहवो वसन्ति गगने सर्वेअपि नैतादृशाः।
केचिद् वृष्टिभिरार्द्रयन्ति वसुधां गर्जन्ति केचितद् वृथा
यं यं पश्यसि तस्य तस्य पुरतो मा ब्रूहि दीनं वचः।।”

अर्थात अरे हे मित्र! यह तू पीहू-पीहू करता है बादल को देखते ही। जानता है? आकाश में बहुत ढंग के बादल होते हैं, कोई अपनी वृष्टि से वसुधा को आर्द्र करते हैं, कोई केवल गर्जन-तर्जन करते हैं, एक बिन्दु डालते नहीं। बहुत से संसार में व्यक्ति हैं, जो आया उसी के सामने ‘त्राहि मां-त्राहि मां, यह पद्धति गलत है।

हाँ एक बात है, ऐसा नहीं कि शरणागति दूसरी नहीं करनी चाहिये।

इष्ट शरणागति के अनुकूल जो शरणागति हो, वह स्वीकार करने योग्य है।

‘”श्रीरामदूतं शरणं प्रपद्ये”

श्रीराम की शरणागति ग्रहण करोगे तो उसमें पुष्टि के लिये रामदूत-हनुमान् की शरणागति भी आवश्यक होगी।

इसी दृष्टि से शरण्य की शरणागति अपेक्षित है, हरेक की नहीं।

श्रीराम भगवान भी शरण हुए समुद्र के ‘समुद्रं राघवो राजा शरणं गन्तुमर्हति’
परन्तु उनकी शरणागति कहाँ सफल हुई?
विफल हो गयी।

शरण्य में क्या होता है?
सर्वोश्वरत्व, सर्वकारणत्व, सर्वशेषित्व और सुलभत्व। ये शरण्य के प्रयोजक है।
कौन शरण्य हो सकता है?
जो सर्वोश्वर हो, सर्वकारण हो, सर्वशेषी हो और सर्व सुलभ हो।

विभीषण की शरणागति सफल हुई, क्योंकि उसने शरण्य ठीक चुना। भगवान राम सर्वेश्वर, सर्वकारण, सर्वशेषी और सर्व सुलभ भी हैं, पर उनसे भी ज्यादा सुलभ श्री जी है।
श्रीराम को अनन्त ब्रह्माण्ड के उत्पाद, पालन और संगरण के प्रपञ्च में संलग्न रहना पड़ता है और सब शर्ते उनमें भी ठीक हैं। सर्वेश्वरत्व भी उनमें है, सर्वंशेषित्व भी उनमें है, सर्वकारणत्व भी उनमें है।

शरणागति बार-बार या एक बार?

महानुभावों ने विचार किया है-

‘ज्योतिष्टोमेन स्वर्गकामो यजेत्’

सर्व प्राप्ति के लिये ज्योतिष्टोम का अनुष्ठान बार-बार करने की आवश्यकता नहीं, एक बार ही पर्याप्त है। एक बार के अनुष्ठान से ही स्वर्ग प्राप्ति निश्चित हो गयी, क्योंकि आवृत्ति का विधान नहीं है। इसी प्रकार एक बार शरणागति हो गई तो काम हो गया।

लेकिन एक बार ही वेदान्त श्रवण से काम नहीं चलेगा-

‘आवृत्तिरसकृदुपदेशात्।’

सूत्रार्थः- प्रत्यय की आवृत्ति करनी चाहिये, क्यों कि ‘श्रोतव्यो मन्त्व्यः’ आदि श्रुतियों में इस प्रकार का बार-बार उपदेश है।

वेद में लिखा है- ‘व्रीहीनवहन्ति’ ‘धानों को कूटे’ कितने बार मूसल चलाये?
एक बार मूसल चलाने पर भी अवघात हो गया, परन्तु नहीं—

“यावत्तण्डुलनिष्पत्ति र्न स्यात्”

‘यावत्पर्यन्त तण्डुलनिष्पत्ति न हो तावत्पर्यन्त अवघाव करे’ इसी प्रकार वेदान्त श्रवण की सीमा है अपरोक्ष साक्षात्कार।
वह जब तक न हो तब तक ममन, निदिध्यासन करते चलो।

लेकिन शरणागति के लिये ऐसी-कोई बात नहीं। एक बार भी शरणागति हो गई तो ठीक है।

सर्वेश्वरत्व, सर्वकारणत्वत्व, सर्वशेषित्व, सुलभत्व और वात्सल्यपूर्ण मातृत्व की दृष्टि से श्री जी की शरणागतिः- शरण्य के सम्बन्ध में आचार्यों ने विचार किया है।

श्रीमन्नारायण और श्री जी के स्वरूप पर आचार्यों में मतभेद है।

वेदान्तदेशिक की और भिन्न-भिन्न आचार्यों का दृष्टियाँ हैं, उसके साथ यह भी एक दृष्टि है—-

एकंज्योतिरभूद्रेधा राधामाधवरूपकम्

एक अनन्त-अखण्ड-निर्विकार ब्रह्मज्योति ही “गौर-तेज
और श्याम तेज” के रूप में प्रकट हुयी।

इस तरह श्रीराधा-माधव दोनों एक ही हैं। एक ही अनन्त-अखण्ड-निर्विकार ब्रह्मज्योति श्रीमन्नारायण परात्पर परब्रह्म विष्णु और ऐश्वर्य-माधुर्य की अधिष्ठात्री भगवती महालक्ष्मी के रूप में, श्रीसीता और श्रीराम के रूप में प्रकट हुई है।

ऐसा होने पर भी श्री जी में सुलभता अधिक है। सर्वेपूरकत्व, सर्वशक्तिमत्व उनमें है। सर्वकारणत्व, सर्वशोषित्व उनमें है। सुलभत्व तो उनसे ज्यादा और किसी में है ही नहीं।

“””श्रीमद्भागवत सुधा से””””

“””स्वान्तःसुखाय”””

श्री शिवप्रसाद त्रिपाठी

 

Related Tags:

No Comments yet!

Your Email address will not be published.