श्रीमद्भागवत के प्रथम स्कन्ध के नवम् अध्याय में भीष्म पितामह ने एकादश श्लोकों में भगवान् श्रीकृष्ण की बड़ी सुंदर स्तुति की है। अपनी स्तुति के पहले श्लोक में भीष्म कहते हैं–
इति मतिरुपकल्पिता वितृष्णा
भगवति सात्वतपुङ्गवे विभूम्नि।
स्वसुखमुपगते क्वचिद्विहर्तुं
प्रकृतिमुपेयुषि यद्भवप्रवाहः।।
विद्वान लोग “अथ” से प्रारम्भ करते हैं और “इति” से समाप्त करते हैं। परन्तु यहाँ तो भीष्म जी इति से प्रारम्भ कर रहे हैं। मानो कहना चाहते हों कि इस शरीर के द्वारा यह अंतिम स्तुति है भगवान् की क्योंकि मृत्यु का समय है, शरीर समाप्त हो जायेगा। भीष्म पितामह कहते हैं– अब मृत्यु के समय मैं अपनी यह बुद्धि जो अनेक प्रकार के साधनों का अनुष्ठान करने से अत्यंत शुद्ध और कामनारहित हो गयी है, भगवान् श्रीकृष्ण के चरणों में समर्पित करता हूँ, जो सदा-सर्वदा अपने आनंदमय स्वरुप में स्थित रहते हुए भी कभी लीला, विहार करने की इच्छा से प्रकृति को स्वीकार कर लेते हैं, जिससे यह सृष्टि परम्परा चलती रहती है।
भगवान् की बहुत सुंदर छवि का वर्णन भीष्म पितामह ने किया है। जो त्रिभुवन–सुंदर हैं, श्याम तमाल के समान सांवले हैं, जिन्होंने सूर्य रश्मियों के समान पीताम्बर ओढ़ रखा है, जिनके मुख पर कमल-सदृश घुंघराली अलकें लटकती रहती हैं, उन अर्जुन सखा भगवान श्रीकृष्ण में अपनी प्रीति को दृढ करते हैं पितामह। कहते हैं कि युद्ध के समय की उनकी छवि याद आती है। उनके मुख पर लहराते हुए घुंघराले बाल घोड़ों की टॉप की धूल से मटमैले हो गये थे और पसीने की छोटी छोटी बूँदें शोभायमान हो रही थीं।
भीष्म कहते हैं कि श्रीकृष्ण अपने मित्र अर्जुन की बात सुनकर अपना रथ दोनों सेनाओं के बीच ले आये थे और दृष्टि मात्र से ही उन्होंने शत्रुपक्ष की आयु छीन ली थी। भीष्म को यह भी पता था कि अर्जुन ने जब कौरवों की सेना में अपने स्वजनों को देखा तो पाप समझकर वह उनके वध से विमुख हो गया। उस समय परमपुरुष भगवन श्रीकृष्ण ने गीता के रूप में आत्मविद्या का उपदेश करके उसके अज्ञान का नाश कर दिया।
जब दुर्योधन ने भीष्म को बहुत सुनाया था कि वे मन से युद्ध नहीं कर रहे तो भीष्म ने कहा थे कि वे पांचों पांडवों का वध कर देंगे या कृष्ण को शस्त्र ग्रहण करवाके रहेंगे। फिर दुर्योधन ने अपनी दीर्घायु के लिये आशीर्वाद माँगा तो पितामह ने कहा था कि मैं तुम्हे यह आशीर्वाद नहीं दे सकता। अपनी पत्नी भानुमति को भेजना तो मैं उसे सर्वसौभाग्यवती भवः का आशीर्वाद दे दूंगा जो तुम्हे ही लगेगा। परन्तु भगवान श्रीकृष्ण द्रौपदी को पहले ही ले आये थे। भीष्म ध्यान में थे। तो कहीं चप्पलों की आवाज़ से उनका ध्यान भंग न हो जाये, और वो देख न लें द्रौपदी को, इसलिये भगवान ने द्रौपदी की चप्पलें उतरवा दी थीं और उन्हें उठाके स्वयं दूर चले गये थे।
द्रौपदी ने भीष्म को प्रणाम किया तो उन्होंने सोचा कि दुर्योधन की पत्नी भानुमति ही आयी होगी। उन्होंने भी कह दिया सर्व सौभाग्यवती भवः। परन्तु जब द्रौपदी ने पूछा कि आपने तो कल मेरे पतियों को मारने की प्रतिज्ञा की थी और आज मुझे सर्व सौभाग्यवती भवः का आशीर्वाद दे रहे हो! भीष्म पितामह की एकदम से आँखें खुल गयी थीं। पूछते कि तुम्हे कौन लाया यहाँ तो द्रौपदी कहती कि कृष्ण लाये हैं। पितामह पूछते कि कृष्ण कहाँ हैं तो द्रौपदी कहती बाहर खड़े हैं। दौड़ते हुए पितामह जब जाते हैं और अपने पहरेदारों से पूछते हैं कि कृष्ण कहाँ हैं। तो वे कहते हैं कि एक काला काला व्यक्ति आया तो था परन्तु उसे हमने निकाल दिया। जब भीष्म दौड़ते हुए बाहर आते तो देखते कि द्रौपदी की जूतियों का सिराहना बनाके भगवान भूमि पर सो रहे हैं। भीष्म ने कहा कि जिसकी जूतियां भगवान् से अपने सिर से लगा लीं, उसके पतियों को कौन मार सकता है!!
भीष्म की उसी प्रतिज्ञा को सत्य एवं ऊंची करने के लिये भगवान ने अपनी शस्त्र ग्रहण न करने वाली प्रतिज्ञा तोड़ दी। वे रथ से नीचे कूद पड़े और सिंह जैसे हाथी को मारने के लिये उस पर टूट पड़ता है, वैसे ही रथ का पहिया लेके भीष्म की ओर दौड़े। भीष्म कहते, “उस समय वे इतने वेग से दौड़े कि उनके कंधे का दुपट्टा गिर गया और पृथ्वी कांपने लगी। मुझ आततायी ने तीखे बाण मार मारके उनके शरीर का कवच तोड़ डाला था, जिससे उनका सारा शरीर लहूलुहान हो रहा था, अर्जुन के रोकने पर भी वे बलपूर्वक मुझे मारने के लिये मेरी ओर दौड़े आ रहे थे।”
अर्जुन के रथ की रक्षा में सावधान श्रीकृष्ण के बाएं हाथ में घोड़ों की रास थी और दाहिने हाथ में चाबुक, इन दोनों की शोभा से उस समय उनकी अपूर्व छवि बन गयी थी, और महाभारत युद्ध में मरने वाले वीर उस छवि का दर्शन करके मोक्ष को प्राप्त हो गये। मानो पितामह कह रहे हों कि यदि मैं पांडवों का पक्ष लेता तो मेरा रथ अर्जुन के रथ के समीप खड़ा रहता और मुझे उस छवि का दर्शन करने के लिये बार बार उस रथ की ओर देखना पड़ता। परन्तु जब मैं कौरवों की ओर से लड़ रहा था तो अर्जुन का रथ मेरे रथ के सामने रहता और मैं निरन्तर भगवान श्रीकृष्ण की उस सुंदर छवि का दर्शन करता रहता।
भीष्म अपनी स्तुति में रासलीला का वर्णन करते हुए कहते कि श्रीकृष्ण की लटकीली सुंदर चाल, हाव भाव युक्त चेष्टाएँ, मधुर मुस्कान और प्रेमभरी चितवन से अत्यंत सम्मानित गोपियाँ रासलीला में इनके अंतर्धान हो जाने पर प्रेमोन्माद से मतवाली होकर उनकी लीलाओं का अनुकरण करके तन्मय हो गयी थीं। युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ को याद करके भीष्म कहते कि वहां राजाओं और मुनियों से भरी सभा में सबसे पहले कृष्ण की पूजा हुई थी। जैसे एक सूर्य अनेक आँखों से अनेक रूपों में दीखते हैं, वैसे ही अजन्मा भगवान् श्रीकृष्ण अपने ही द्वारा रचित अनेक शरीरधारियों के हृदय में अनेक रूप से जान पड़ते हैं।
उन्हीं भगवान श्रीकृष्ण के चरणों में भीष्म अपनी आत्मा स्मर्पित करके उन्ही को प्राप्त हो जाते हैं। उत्तरायण तक उन्होंने प्रतीक्षा की थी। उत्तरायण अर्थात जिस स्थिति में सूर्य उत्तर दिशा की ओर गमन करने लगता है जिसके कारण पृथ्वी के उत्तरी गोलार्ध में दिन लम्बे और रातें छोटी होने लगती हैं अर्थात सर्दी समाप्त होने लगती है और गर्मी बढ़ने लगती है। परन्तु यहाँ तो उत्तरायण का एक अर्थ और भी निकलता है– उत्तरायाः गर्भो अयनं निवासस्थानं यस्य असौ उत्तरायण श्रीकृष्ण। भक्त की रक्षा के लिये भगवान श्रीकृष्ण उत्तरा के गर्भ में प्रवेश कर गये थे, अतः उत्तरा के गर्भ में अयन अर्थात गमन करके जिन्होंने वहां अपना निवासस्थान बना लिया, वहीं तो उत्तरायण श्रीकृष्ण हैं। और वास्तव में भीष्म पितामह सूर्य के उत्तरायण होने के साथ भगवान् श्रीकृष्ण की ही प्रतीक्षा कर रहे थे और उन्हीं में उन्होंने अपने प्राणों को विलीन कर दिया।
© सुमित कृष्ण
वैशाख शुक्ल एकादशी, विक्रम संवत २०७७
सोमवार; मई ४, २०२०
श्री सुमित कृष्ण
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